Khali Rehne Do Hatho Ko || New Nirankari Poem

खाली रहने दो हाथों को राकेश मुटरेजा (दिल्ली)


अभी अभी जो पैदा हुई,
वो सांस तो कब की मर भी गयी ।
इक घड़ी जो ग़ैब से उभरी थी,
वो ग़ैब में वापिस घुल भी गई।

बुलबुला बना जो पानी में,
वो देखते देखते डूब गया।
दिन आया था इक रात के बाद,
 रात आने पर फिर छूट गया।

 रंगोली था जिसको नाम दिया, 
वो तितली जाने कहाँ गयी। 
कागज की नाव जो बच्चे ने, 
पानी में चलाई कहाँ गयी।

ख्वाब सुनहरे देखे थे, 
जब नींद खुली सब सो थे गए। 
कल अपने जो भी लगते थे, 
वो आज पराये हो भी गए। 

हालाँकि सारे अपने हैं,
 पर जग में कुछ भी नहीं अपना ।
आना जाना खोना पाना, 
नैनों का छल झूठा सपना । 
मौसम आएंगे जायेंगे, 
रुत बदलेगी अरमानों की। 
बादल के पीछे मत भागो, 
नहीं उम्र छाया, पहचानों की।

रेत को कितना भी चाहो, मु
ट्ठी में कब तक ठहरेगी। 
जो बना वो बिगड़ेगा बेशक, 
और नई बहारें महकेंगी।

पकड़ो मत रिश्ते नातों को, 
न लम्हों को, न बातों को। 
जो रहना है, उसे दिल में रख,
 खाली रहने दो हाथों को,
 खाली रहने दो हाथों को।


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