गुरु जी विद्यार्थी को बार-बार समझा रहे थे। पर विद्यार्थी को पाठ समझ में नहीं आ रहा था। गुरु जी खीझ उठे। उन्होंने विद्यार्थी से कहा- जरा अपनी हथेली तो दिखाओ, बेटा। विद्यार्थी ने अपनी हथेली गुरु जी के आगे कर दी।
हथेली देखकर गुरु जी बोले- बेटा! तुम घर चले जाओ। आश्रम में रहकर व्यर्थ अपना समय बर्बाद कर रहे हो। तुम्हारे भाग्य में विद्या नहीं है।
- क्यों गुरु जी !- शिष्य ने पूछा।
- क्योंकि तुम्हारे हाथ में विद्या की रेखा नहीं है।- गुरु जी ने कहा।
गुरु जी ने एक दूसरे विद्यार्थी की हथेली उसे दिखाते हुए कहा- यह देखो। यह है विद्या की रेखा। यह तुम्हारे हाथ में नहीं है। इसलिए तुम समय नष्ट न करो. घर जाओ। वहाँ अपना काम देखो।
विद्यार्थी ने जेब से चाकू निकाला, जिसका प्रयोग वह दातुन तोड़ने के लिए किया करता था। उसकी पैनी नोंक से उसने अपने हाथ में एक गहरी लकीर बना दी। हाथ लहु-लुहान हो गया। तब वह गुरु जी से बोला- मैंने अपने हाथ में विद्या की रेखा बना दी है, गुरु जी।
गुरु जी ने विद्यार्थी को गले से लगा लिया और बोले- तुम्हें विद्या सीखने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती, बेटा। दृढ़ निश्चय और परिश्रम हाथ की रेखाओं को भी बदल देते हैं।
वह विद्यार्थी था- पाणिनि, जिसने बड़े होकर विश्व-प्रसिद्ध व्याकरण के ग्रंथ 'अष्टाध्यायी' की रचना की। सदियां बीत जाने पर भी विश्व की किसी भी भाषा में ऐसा उत्कृष्ट और पूर्ण व्याकरण का ग्रंथ अब तक नहीं बना।
